जीबैत लहास
जीबैत लहास """"'''''''''''''''''''''''''''''''' क्षण प्रति क्षण मरैत हमर मन , कलपैत काया,कुहरैत कोंढं, छलकैत नैन,ढोबैत रहै छै अपनहि कान्ह पर मृत्यु पर्यन्त जीबैत लहास के । मायक देखल सपना जे देखने छल हमरा लेल बाबूजीक ओ धैरज जहन धूर-धूर बेच देल जमीन हमरा पढ़ेबाक लेल । राति जागि कय कयल पढ़ौनी बहुते रास पाओल ओ डिग्री जे हमरा लेल पारस पाथर सम राखि देल स'ब बन्हक किछु पाइयक खातिर अपन औंठा छाप सेठजी ल'ग । मरि गेल अछि हमर विवेक हम राति के दिन आ दिन के राति कहैत छी बिका गेल अछि हमर ईमान हम साँच के झूठ आ झूठ के साँच बनबैत छी । हानि -लाभ सँ नपाइत संस्कार आ संस्कृति धर्म -अध्यात्मक मूल बनल मात्र अर्थ केर प्राप्ति पोसा रहल छै देह मुदा भ'अ गेलै आत्माक मरन । ******************** (विजय इस्सर "वत्स") ०१-५-१८ *********